Saturday, May 30, 2020

BROTHERHOOD OF BANDITS by Sitaram Goel

One pretension of Islam is that it stands for human brotherhood and social equality as contrasted with the caste divisions and class hierarchies rampant in other societies, particularly the Hindu society. Many people with socialist preferences or pretensions are duped by what they describe as the social progressivism of Islam. We have in this country a whole battalion of Hindu-baiters who have no use for Allah or for Muhammad but who strongly recommend Islam on the rebound because they have come to believe that Islam stands for better social values. And there is no dearth of Hindus, who, while they love their own religion and culture, admit at the same time that Hindu society has a lot to learn from Islam in matters of brotherhood and equality.

Islam had never put forward these claims before the rise of democracy and socialism in modern times. The old theologians of Islam were meticulous in placing various people in their proper places. The mumins (believers) constituted the master class (millat) entrusted with the mission of imposing the faith and law of the Prophet on all mankind. The kãfirs were the scum of the earth who were to be consigned to eternal hell-fire whenever they could not be killed or converted outright. The zimmîs were people who accepted the supremacy of the Islamic state and agreed to live as non-citizens under severe disabilities. The slaves were mere merchandise who could be bought and sold in the bazar, and killed without any compunction if they tried to escape into freedom. And the women (zan) were mens personal property comparable to gold and silver (zar) and land (zamin), to be kept veiled and hidden in the harem if they happened to be legal wives, or to be presented as gifts if they happened to be newly captured beauties, or to be circulated among friends if they happened to be concubines. Within the millat itself, the Quraish had primacy over the plain Arabs at the start of Islamic imperialism. The civil list devised by Caliph Umar for monetary grants given to Arab families out of the booty obtained in wars, reflects this class hierarchy in Arab society. As the Arab empire expanded east and west, the non-Arabs everywhere were treated as inferior people, in law as well as in practice, even when the latter became mumins. Later on, the Turks took over the Arab legacy of being a master race. Islam has never known any brotherhood or equality even within its millat.

But the theologians of Islam look the other way when Islam gets sold in a new garb, and that too by people who do not profess Islam. They are also prepared to participate in the crudest casuistry in interpreting the Quran in line with the latest demagogies of social philosophy. The only true faith has to be served even if it means a fraud on the hallowed scripture.

The Quran is quite frank and straight-forward on the subject of human brotherhood and social equality. It says: He who seeks a faith other than Islam will never be accepted (3.85). You fight them till not a trace of unbelief is left (8.39). When you meet the kãfirs, cut their throats until you have made a great slaughter amongst them, and when you have defeated them, take them prisoners so that you may earn ransom. Fight them till they surrender (47.4). War is prescribed for you, and you dislike. But it is possible that you dislike what is good for you (2.216). And so on, it all reads like a manual of war on mankind rather than a charter of human brotherhood. It neatly divides humanity into mumins and kãfirs, and leaves not the slightest scope for any mutual understanding or normal morality between the two.

Monday, May 18, 2020

भारत में मुस्लिम साम्राज्य : मिथ्य या सत्य

आज हम यह जानने का प्रयास करेंगे की अलीगढ़ीया इतिहासकार और धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढ़े इस्लामी पक्ष मंडक द्वारा लिखे गए इतिहास में कितनी सच्चाई है। इनके अनुसार भारत में इस्लामी साम्राज्य छेह दशकों तक भारत का भोग करता रहा। इसमें कितनी सत्यता है इसका विश्लेषण हम आगे करने का प्रयास करेंगे। इनके द्वारा लिखे गए इतिहास को ‌पढ़ने के बाद कई सारे प्रश्र ध्यान में आते हैं जो इस प्रकार है –
1. क्या हिंदुओं पर आक्रमण कर उनको हराना इतना सरल था जितना की इतिहास हमें बताता है?
2. क्या इस पूरे कालखंड में किसी भी हिंदू राजा ने इस्लामिक आक्रान्ताऔं के खिलाफ हथियार उठाने का प्रयास नहीं किया होगा?
3. क्या भारत में मुस्लिम आक्रमण निर्विरोध जीत थी?
इत्यादि...

इस्लामपरस्त इतिहासकारों का यह भी कहना है की यदि मुस्लिम विजेताओं ने हिंदूऔं और हिंदू धर्म के विरुद्ध  व्यवस्थित, विस्तृत और निरंतर आतंक का व्यवहार किया होता तो यह इतने लंबे मुस्लिम शासन काल के अंत तक हिंदू लोग ऐसी भारी बहुसंख्या के रूप में नहीं बचे होते।
यह तर्क उतना ही खोखला है जितना कि, किसी व्यक्ति पर जानलेवा हमला किया जाता है, लेकिन वह लड़कर  बच जाता है। फिर वह तार्किक रूप से निष्कर्ष देते हैं कि उस व्यक्ति पर कभी जानलेवा हमला हुआ ही नहीं था, अगर हुआ होता तो वह जिंदा कैसे बच गया।

अकादमिक इतिहासकारों की माने तो 12 वीं सदी के अंतिम दशक से 18 वीं सदी के अंत तक भारत मुस्लिम शासकों द्वारा शासित था। इसलिए, इतिहास की सामान्य पाठ्य पुस्तकों में इस्लामिक शासक वन्शों जैसे मामलूक, खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, सूर, मुगल आदि द्वारा का महिमा मंडक किया जाता है वही दूसरी ओर हिंदू राजाओं जैसे राजपूतों, मराठों और सिखों इत्यादि को क्षुद्र महत्त्वाकांक्षी और निजी स्वार्थ के लिए इस्लामी शासकों के विरुद्ध प्रतिरोध और सामाजिक शांति भंग करने के रूप में प्रदर्शित किया जाता है।

लेकिन तथ्य क्या है? क्या वे इस व्याख्या को प्रमाणित करते हैं कि भारत पूरी तरह और अंतिम रूप से इस्लाम द्वारा जीता जा चुका था, और भारत में मुस्लिम साम्राज्य एक बनी बनाई पोशाक थी, जिसे बाद में ब्रिटिशों ने धोखाधड़ी से चुरा लिया?

पहले, सिंध पर कथित जीत को देखते हैं।
अरबों ने 634 से 637 ई. तक थाना , ब्रोच और दबाल से होकर पहले समुद्री रास्ते से हमले की कोशिशें की। फिर 650 से 711 ई. के बीच उत्तर पश्चिम में जमीनी मार्ग से कोशिश की। लेकिन काबुल और जाबुल के हिन्दू राजाओं ने खैबर दर्रा तक रोके रखा, जिन्होंने कई बार अरबों को हराया, और अनाक्रमण की संधियाँ करने पर विवश किया। कोकन के जाटों ने बोलन दर्रा तक रोके रखा।

भारत की सीमा पर अरबों के इस रिकॉर्ड की तुलना अब दूसरी जगहों से करें । प्रोफेट की मौत के आठ साल के अंदर उन्होंने फारस , सीरिया और मिस पर कब्जा कर लिया था। 650 ई. तक वे ऑक्सस तथा हिन्दू कुश तक आ चुके थे। 640 से 709 ई. के बीच उन्होंने पूरे उत्तरी अफ्रीका पर नियंत्रण कर लिया। उन्होंने 711 ई. तक स्पेन को जीत लिया था । लेकिन उन्हें भारत की धरती पर पहली बार कोई जगह बनाने में 70 साल लगे ।

वर्ष 712 ई. में मुहम्मद बिन कासिम सिंध के कुछ शहरों पर कब्जा करने मे हुआ। उस के उत्तराधिकारियों ने पंजाब, राजस्थान और सौराष्ट्र पर कुछ छापे मारे । किन्तु वे जल्द ही हार गए, और वापस भगा दिए गए। अरब इतिहासकार स्वीकार करते हैं कि " ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहाँ भागकर मुसलमान शरण ले सकते । " 8 वीं सदी के मध्य तक उन्होंने केवल सैनिकों से भरे हुए मुलतान और मंसूरा पर ही नियंत्रण किया।मुलतान में उन की कठिन स्थिति का वर्णन अल कजविन ने फतेह - उल - बिलाद में इन शब्दों में किया है :
" काफिरों का वहाँ एक बड़ा मंदिर , और उस में बड़ी सी मूर्ति है... सेवकों और पुजारियों के घर मंदिर के आस - पास ही हैं, और उस मंदिर क्षेत्र में रहने वालों के सिवा मुलतान में कोई मूर्तिपूजक नहीं है. मुलतान के शासक ने उस मूर्ति को नहीं तोड़ा क्योंकि वह वहाँ आने वाला भारी चड़ावा ले लेता है और जब भारतीय उस शहर पर हमला करते हैं, तो मुसलमान वह मूर्ति निकालते हैं, और जब काफिर देखते हैं कि मैं मूर्ति तोड़ी या जलाई जाने वाली है, वे वापस लौट जाते हैं "
यही था अरबों का एकपंथवाद और सैन्य-ताकत।

इसके कुछ वर्षों बाद, 963 ई. में, तुर्क अल्पतिगीन जाबुल की राजधानी गजनी पर कब्जा करने में सफल हुआ। उसका उत्तराधिकारी सुबुक्तिगीन 997 ई. में मरने से कुछ पहले हिंदू शाहिया राजवंश से काबुल को लेने में सफल रहा। उसके बेटे महमूद गजनवी ने 1000 ई. से 1207 ई. तक भारत पर कई चढ़ाइयाँ की। उसके विध्वंसक और पागलपन के विवरण विश्व कुख्यात हैं।

महमूद के मरने के बाद पंजाब से जाटों और गक्कारों ने सिंध और पंजाब में मुस्लिम कब्जावरो को अंतहीन परेशान किया। जिससे उन्हें भारत पर  दुबारा आक्रमण करने में 150 वर्ष का समय लगा। 1178 ई. में मोहम्मद घूरी गुजरात की और बढ़ा लेकिन चालुक्यों के हाथों बुरी तरह मुंह कि खानी पड़ी और किसी तरह जान बचाकर भागने में सफल रहा। 1191 ई. की तराई की लड़ाई के मैदान से अधमरा उठा कर लाया गया था। फिर जाकर 1192 ई. में वह हिंदुओं के विरुद्ध पहले जीत मिली, क्योंकि उसने एक दूर तरीका अपनाया जैसे वीर राजपूत समझने में विफल रहे।

मोहम्मद घूरी ने पंजाब, सिंध, दिल्ली और कन्नौज तक दोआब जीत लिया। उसके सिपाहसलार ऐबक ने उस जीत को राजस्थान में अजमेर और रणथंभौर, बुंदेलखंड में ग्वालियर, कालिंजर, महोबा और खजुराहो, तथा गंगा के पास कटिहार और बदायूं तक फैलाया। इसी बीच बख्तियार खिलजी ने बिहार और उत्तरी बंगाल और हुगली के पश्चिम क्षेत्र को जीत लिया। असम में बढ़ने की कोशिश में उसकी भारी हार हुई।

जब तक 1206 ई. में गक्करों द्वारा मुहम्मद घूरी की हत्या हुई , और भारत में उस के इलाकों पर ऐबक ने सत्ता संभाली, चंदेलों ने फिर से कालिंजर अपने अधिकार में कर लिया। रणथंभौर ने दिल्ली की अधीनता मानना बंद कर दिया तथा प्रतिहारों ने ग्वालियर को फिर अपने हाथ में ले लिया। गहड़वाल राजा हरिश्चंद्र के अधीन दोआब में फिर से हथियार उठा लिये गए और गंगा के पास कटेहर राजपूतों ने फिर अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। अलवर के गिर्द यादवभट्टी राजपूतों ने अजमेर तक का शाही रास्ता काट कर बंद कर दिया। ऐबक 1210 ई. में मरने तक इन में से किसी क्षेत्र को फिर से जीत न सका।

ऐबक का उत्तराधिकारी इल्तुतमिश रणथंभौर और ग्वालियर फिर से लेने और अजमेर के पास अपना अधिकार बढ़ाने में सफल रहा। पर उसे नागदा के गहलोत, बूंदी के चौहान, मालवा के परमार, और बुंदेलखंड के चंदेलों के हाथों कई बार हार खानी पड़ी। गंगा के पार कटिहार राजपूतों ने अपनी स्थिति मजबूत कर ली जिसे सुलतान हिला न सका। दोआब से अभी भी कड़ा प्रतिरोध किया जा रहा था। 1236 ई. मैं मरने तक उसकी पकड़ अजमेर पर भी ढीले पड़ने लगी थी।

इल्तुतमिश द्वारा स्थापित शम्शी वंश की सल्तनत रजिया, बहरैन, मसूद और महमूद के शासन कालों में अत्यधिक कमजोर होती गई। हालांकि बलबन ने इस के विघटन को रोका जो 1246 ई. के बाद से प्रभावी रूप से शक्तिशाली हुआ। बंगाल में मुस्लिम स्थिति को हिन्दू उड़ीसा से गंभीर खतरा था। असम पर दूसरा मुस्लिम आक्रमण भी पहले जैसा बुरी तरह विफल रहा जिस में मुस्लिम जेनरल की जान गई और पूरी मुस्लिम फौज खत्म हो गई। अब बिहार में हिन्दू सरदारों ने मुस्लिम सैनिक छावनियों को नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया। दिल्ली के निकट चंदेल मथुरा तक आगे बढ़ आए थे। अलवर के राजपूत हाँसी तक छापे मारने लगे थे, और दिल्ली क्षेत्र के मुसलमानों को भी डर सताने लगा। हिन्दुओं के फिर खड़े होते इस ज्वार के विरुद्ध बलवन को मामूली सफलता ही मिली। उसे कई हानियाँ उठानी पड़ी। 1289 ई. में बलवन के मरने तक सल्तनत एक बार फिर दिल्ली के गिर्द एक छोटे से टुकड़े में सिमट गई थी।

अब तक की स्थिति का सार डॉ . रमेश चंद्र मजूमदार ने इन शब्दों में दिया है :
" 13 वीं सदी में विंध्य पर्वत के दक्षिण में संपूर्णतः हिन्दू शासन था । उसी सदी में उत्तर भारत में भी शक्तिशाली राज्य थे जो मुस्लिम शासन के अधीन न थे , या अपनी स्वतंत्रता के लिए अब भी लड़ रहे थे ... यहाँ तक कि भारत के उस भाग में भी जो मुस्लिम शासन को मानता था , हिन्दुओं के छोटे - बड़े दस्तों द्वारा निरंतर विद्रोह और बहादुरी से प्रतिरोध होता रहता था । इस से एक के बाद एक मुस्लिम शासकों को बार - बार उसी क्षेत्र में सुसज्जित सेनाएं भेजनी पड़ती थी ... वस्तुत : पूरी 13 वीं सदी में उत्तर भारत में मुस्लिम मता अनेक बड़े केंद्रों में सैनिक कब्जे जैसी थी जो कब्जा भी बहुत प्रभावी नहीं था , सारे इलाके का प्रशासन चलाना तो दूर की बात रही । "

जलालुद्दीन खिलजी पिछले शासनों में छिन गए इलाकों में किसी को भी फिर लेने में सफल न रहा। उस से बहुत अधिक अलाउद्दीन खिलजी सफल रहा। उस के जनरल उलूघ खान और नुसरत खान ने 1298 ई . में गुजरात पर फिर कब्जा किया । लेकिन वे रणथंभौर से हराकर वापस भेज दिए गए, जिसे अलाउद्दीन फिर 1301 ई. में नियंत्रण में ले सका । 1303 ई . में उस की चित्तौड़ विजय अल्प - जीवी रही क्योंकि 1316 ई. में उस की मौत के बाद सिसोदियाओं ने उसे वापस छीन लिया । राजस्थान में उस की जालौर विजय का भी वही हश्र हुआ। उस के साथ मलिक कफूर के महाराष्ट्र में देवगिरि, आंध्र प्रदेश में वारांगल , कर्नाटक में देवसमुद्र ,और तमिलनाडु में मदुराई के विरुद्ध अभियान भी तात्कालिक छापे से अधिक कुछ न साबित हुए । क्योंकि आक्रमणकारियों के जाते ही इन सभी राजधानियों में हिन्दू राजाओं ने अपना स्वतंत्रता पुनः घोषित कर दी। और 1316 ई. में अलाउद्दीन के मरते ही खिलजी साम्राज्य ध्वस्त हो गया।

गयासुद्दीन तुगलक के बेटे जीना खान को 1321, 1323, 1324 ई. में हरा कर भगा दिया गया। वह अधिक सफल तब हुआ जब उसने मोहम्मद तुगलक के नाम से सत्ता संभाली। लेकिन सत्ता के बिल्कुल आरंभ में ही उसे मेवाड़ के महाराणा हम्मीर से हार खानी पड़ी, बंदी बनाया गया, और तभी छोड़ा गया जब उसने अजमेर, रणथंभौर और नागौर पर अपना सारा दावा छोड़ तथा हर्जाने में 50 हजार रूपए दिए। और विंध्य के दक्षिण में उसका साम्राज्य उसके जीवनकाल में ही दिल्ली के हाथ से निकल गया। 1351 ई. मैं उसके मरते ही उत्तर के सभी बड़े हिस्से में भी दिल्ली की पकड़ लुप्त हो गई। कुछ समय तक बचे कुछ इलाके को बचाए रखने में फिरोज शाह तुगलक सफल रहा लेकिन 1399 ई. में तैमूर के हमले के बाद पूरी तरह खत्म हो गया। इसी बीच, कृष्णा नदी के दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य ने हिंदू शक्ति धारण कर ली और राजस्थान में मेवाड़ के अभिमानी राजपूतों का शासन फिर से स्थापित हुआ।

तुगलकों के बाद 1414 ई. मैं सैयदों का शासक वंश शुरू हुआ जिनकी पकड़ केवल पूरब में इटावा (उत्तर प्रदेश) दक्षिण में मेवात (हरियाणा) तक हि सिमटी रही और सैयदों को 1451 ई. मैं लोदियों ने बेदखल कर दिया। लेकिन लोदियों का शासक भी ज्यादा दिनों तक टिक ना सका और इब्राहिम लोदी के अंतर्गत लोदी साम्राज्य लगभग टूट गया। तब तक उत्तर में राणा सांगा के अंतर्गत मेवाड़ सबसे शक्तिशाली राज्य के रूप में उभर चुका था। हिंदू उड़ीसा उत्तर में मुस्लिम बंगाल और दक्षिण में बहमनियों के विरुद्ध मजबूती से जमा रहा। विजयनगर की शक्ति कृष्णदेवराय( 1505- 1530 ई.) के दिनो अपने उत्कर्ष तक पहुंच गई थी।

14 वीं और 15 वीं शताब्दियों के बीच की स्थिति का सार डॉ . रमेश चन्द्र मजूमदार ने इन शब्दों में दिया है : " खिलजी साम्राज्य बीस वर्षों ( 1300 1320 ई . ) की संक्षिप्त अवधि में उठा और गिर गया । मुहम्मद बिन तुगलक का साम्राज्य .. उस के सत्ता संभालने ( 1325 ई . ) के दस वर्ष के अंदर टूट गया , और अगला दशक समाप्त होने से पहले तुर्क साम्राज्य सदा के लिए खत्म हो गया... इस प्रकार, खिलजी और मुहम्मद बिन तुगलक के दो अत्यंत संक्षिप्त साम्राज्य को छोड़कर भारत में कोई तुर्क साम्राज्य नहीं था। यह स्थिति लगभग ढाई सदियों तक रही, जब तक कि 16वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मुगलों ने एक स्थिर और लंबा साम्राज्य नहीं स्थापित कर लिया "

बाबर ने कुछ प्रसिद्ध लड़ाई जीती पर शायद ही कोई साम्राज्य बना पाया हो। उसके बेटे हुमायूं शेरशाह सूरी कई बार हारा और बाबर के जीते हुए राज्यों को भी वापस लेने में असफल रहा। शूर साम्राज्य केवल 5 वर्ष ( 1540-1545 ई.) की संक्षिप्त अवधि तक रहा। और दूसरी तरफ हिंदू सेनापति हेमू ने 1556 ई. मैं दिल्ली में हेमचंद्र विक्रमादित्य के रूप में अपना अभिषेक कराया।

अकबर द्वारा 1556 ई. मैं स्थापित मुगल साम्राज्य 150 वर्षों तक चला। 17वीं सदी के अंत तक यह दक्षिण धुर को छोड़कर संपूर्ण भारत में फैला। किंतु मुगल साम्राज्य की सफलता का श्रेय अकबर की बुद्धिमत्ता को जाता है जिससे उसने राजपूतों को आपस में लड़वा दीया और उसकी सेना में राजपूत जर्नल और सैनिक ही थे जिन्होंने वे कई लड़ाइयां जीती जिनका श्रेय मुगलों ने लिया। मैं राजपूत राज्यों में राजस्थान और बुंदेलखंड केवल नाम को ही मुगल बादशाह के अधीन थे। व्यवहारिक रूप में वे मुगलों के बराबर के सहयोगी जैसे थे जिनके साथ मुगलों का सद्भाव बना कर रखना आवश्यक था। और मेवाड़ ने तो प्रभावी मुगल काल के संपूर्ण दौर में भी हिंदू प्रतिरोध की ध्वजा लहराए रखी।

औरंगजेब के आते ही उसकी बर्बरता और पागलपन के कारण मुगल साम्राज्य तेजी से बिखरने लगा। औरंगजेब के जीवन काल में ही राजस्थान और बुंदेलखंड ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी। वहीं भरतपुर और मथुरा के जाटों ने भी किया। और मराठों ने तो औरंगजेब की कब्र खोद दी। इसी हिंदू विद्रोह ने औरंगजेब की 1707 ई. में मौत के दो दशक के अंदर मुगल साम्राज्य को तोड़ डाला।


निष्कर्ष
संपूर्णता आकलन करें तो, 12 वीं सदी के अंतिम दशक से 18 वीं सदी की पहली चौथाई तक– वह अवधि जिसे भारत में मुस्लिम शासन काल कहा जाता है– मुस्लिम आक्रमणकारियों और हिंदू स्वतंत्रता सेनानियों के बीच लंबे खींचे युद्ध के काल से अधिक कुछ नहीं है। हिंदुओं ने कई लड़ाइयां हारी और बार-बार पीछे हटे। लेकिन हर बार वे फिर उठे, और लड़ाई फिर शुरू की जिस से अंततः शत्रु थक, हार गया, और अंतिम दौर में बिल्कुल बिखर गया जो शिवाजी के उदय से शुरू हुआ था।

इसलिए , यह कहना सच्चाई को विकृत करना है कि इस्लाम ने छ : सदियों तक भारत में साम्राज्य भोगा। वास्तव में इस्लाम छः सदियों तक भारत पर स्थाई कब्जे के लिए लड़ता रहा, किन्तु हिन्दुओं के कड़े और निरंतर प्रतिरोध के सामने अंतिम दौर में हार गया । शायर हाली ने बिलकुल सटीक लिखा था कि हिजाज का अपराजेय जंगी बेड़ा, जिस ने कई सागरों और नदियों पर जीत हासिल की, वह गंगा के दहाने में आकर डूब गया। इकबाल ने भी गमजदा होकर अपने शिकवा में उसी विफलता की याद की है। वस्तुतः, ऐसे मुस्लिम कवियों और नेताओं की कोई कमी नहीं जो अतीत में भारत में इस्लाम की हार का रोना रोते हैं , और जो भविष्य में भारत को फिर जीतने की उम्मीद रखते हैं ।

हिन्दू अपनी मातृभूमि में बहुसंख्यक बन कर जीवित रहे , तो इसलिए नहीं कि इस्लाम ने उन्हें जीतने और धर्मातरित कराने में कोई कसर छोड़ी थी । बल्कि इसलिए कि इस्लामी क्रूरता को स्वतंत्रता के लिए हिन्दू जीवट में अपने से अधिक शक्तिशाली विरोधी मिला । न ही यह कहीं भी सच के निकट है , कि ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में मुस्लिम साम्राज्य की जगह ली । भारत की राजनीतिक शक्ति पहले ही राजपूतों, मराठों, जाटों, सिखों के हाथ आ चुकी थी जब ब्रिटिशों ने यहाँ अपना साम्राज्यी खेल आरंभ किया।