Thursday, March 12, 2020

होली का महत्व


होली/रंगोत्सव फाल्गुनी पूर्णिमा को होलिका दहन के पश्चात चैत्र प्रतिपदा के दिन मनाया जाता है। हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है, इन दिनों में पूजा-पाठ और दान पुण्य करने का विशेष महत्व है। होली सामाजिक मानदंडों से मुक्ति का त्योहार है, इन दिनों सभी अपने मन-मुटाव भूलकर होली के रंग में रंग जाते हैं और बच्चे बूढ़े सभी ढोलक झांझ मंजीरों की धुन के साथ नृत्य संगीत व रंगों में डूब जाते हैं, चारों ओर रंगों की फुहार उड़ती दिखाई पड़ती है। राग रंग का यह त्यौहार वसंत ऋतु के आगमन का भी प्रतीक है। राग अर्थात संगीत और रंग तो इसके प्रमुख अंग है ही पर इसको उत्कर्ष तक पहुंचाने वाली प्रकृति भी इस समय रंग बिरंगे युवान के साथ अपनी चरम अवस्था पर होती है फाल्गुन में मनाए जाने के कारण इसे फाल्गुनी भी कहते हैं इस दिन से फाग और धमार का गाना प्रारंभ हो जाता है। खेतों में सरसों खिल उठती है बागों में फूलों की आकर्षक छटा छा जाती है पेड़- पौधे, पशु पक्षी और मनुष्य सब उल्लास से परिपूर्ण हो उठते हैं खेतों में गेहूं की बालियां झठलाने लगती है।

होलिका दहन का महत्व
होलिका दहन है एक मूल कारण यह भी है कि अग्निदेवता की उपासना से व्यक्ति में तेजतत्व की मात्रा बढ़ने में सहायता मिलती है । होली के दिन अग्निदेवता का तत्व २ प्रतिशत कार्यरत रहता है । इस दिन अग्निदेवता की पूजा करने से व्यक्ति को तेजतत्व का लाभ होता है । इससे व्यक्तिम से रज - तमकी मात्रा घटती है । होली के दिन किए जाने वाले यज्ञों के कारण प्रकृति मानव के लिए अनुकूल हो जाती है । इससे समस्याएं एवं। अच्छी वर्षा होने के कारण सृष्टि संपन्न बनती है । इसीलिए होली के दिन अग्निदेवता की पूजा कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है, होली का संबंध मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन से है, साथ ही साथ नैसर्गिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणों से भी है। यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है दुष्ट प्रवृत्ति एवं अमंगल विचारों का नाश कर सद्प्रवृत्ति का मार्ग दिखाने वाला यह उत्सव है अनिष्ट शक्तियों को नष्ट कर ईश्वरीय चेतन्य प्राप्त करने का यह दिन है। आध्यात्मिक साधना में अग्रसर होने हेतु बल प्राप्त करने का यह अवसर है और अग्नि देवता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का यह त्यौहार है

होली का ऐतिहासिक महत्व
होली का वर्णन अनेक पुरातन धार्मिक पुस्तकों में भी मिलता है जिसमें जैमिनी के पूर्व मीमांसा सूत्र और कथा  गार्ह्य-सूत्र प्रमुख है, नारद पुराण और भविष्य पुराण जैसे पुराणों की प्राचीन हस्तलिपियों और ग्रंथों में भी इस पर्व का उल्लेख मिलता है विंध्य क्षेत्र के रामगढ़ स्थान पर स्थित ईसा ३०० वर्ष पुराने एक अभिलेख में भी इसका उल्लेख किया गया है। इसके अतिरिक्त प्राचीन चित्रों, भित्तिचित्रों और मंदिरों की दीवारों पर इस उत्सव के चित्र मिलते हैं विजयनगर की राजधानी हम्पी के २६वी शताब्दी के एक चित्रफलक पर होली का आनंद दायक चित्र उकेरा गया है इसी तरह में महाराष्ट्र के अहमदनगर से १६ वी सदी कि एक चित्र आकृति भी मिली है जो वसंतोत्सव को दर्शाती है, मध्यकालीन मंदिरों के भित्तिचित्र और आकृतियों में होली के सजीव चित्र देखे जा सकते हैं उदाहरण के लिए जिसमें १७वी शताब्दी की मेवाड़ के एक कलाकृति मैं महाराणा को अपने दरबारियों के साथ चित्रित किया गया है जहां वे कुछ लोगों को उपहार दे रहे हैं, नृत्यांगना नृत्य कर रही हैं और इस सब के मध्य रंग का एक कुंड रखा हुआ है। और बूंदी से प्राप्त एक लघु चित्र में राजा को हाथी पर बैठा दिखाया गया है और युक्तियां आपने अपनी बालकनियों से रंगवर्षा कर रही है।

होली से जुड़ी प्राचीन कहानियां
शास्त्रों और पुराणों में होली को मनाए जाने के पीछे कई कथाएं हैं, रंगोत्सव के साथ विभिन्न तरह की कहानियां जुड़ी हुई है उन्ही मैं से एक प्रहलाद और हिरण्यकश्यप की कहानी हैं। पुराणों के अनुसार विष्णु भक्त प्रल्हाद शिव क्रोधित प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप ने पुत्र प्रह्लाद को ब्रह्मा द्वारा प्रदान में प्राप्त वस्त्र धारण किए बहन होलिका के गोद में आग से जला देने की मंशा से बैठा दिया।  किंतु प्रभु की महिमा से वह वस्त्र प्रह्लाद को ढक लेता है और होलिका जलकर भस्म हो जाती है कृष्ण भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है भौतिक रूप से यह भी माना जाता है कि बलात्कार आनंद होता है उबेर और उत्पीड़न के प्रतीक होलिका ( जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है।
प्रल्हाद की कथा के अतिरिक्त यह पर्व राक्षसी ढुंढी, राधा कृष्ण के रास और कामदेव के पुनर्जीवन से भी जुड़ा हुआ है कुछ लोग यह भी कहते हैं कि भगवान श्री कृष्ण पूतना नामक राक्षसी का वध किया था इसी खुशी में गोपियों के साथ भगवान ने रासलीला की और रंग खेला था।

भिन्न प्रदेशों में विभिन्नता से होली
होली भिन्न प्रदेशों में विभिन्नता के साथ मनाई जाता है जैसे ब्रजभूमि की लठमार होली, मथुरा और वृंदावन की होली, महाराष्ट्र और गुजरात की मटकी फोड़ होली, पंजाब का होला मोहल्ला, बंगाल और उड़ीसा मैं डोल पुर्णिमा होली, कुमाऊं की गीत बैठकी, हरियाणा में धुलंडी प्रथा, तमिलनाडु की "कमल पोडिगई", बिहार का फगुआ और मणिपुर में होलीकोत्सव  ६ दिन तक मनाया जाता है जिसमें "थबल चैंगबा" नृत्य का आयोजन किया जाता है। इसी प्रकार विभिन्न देशों में बसे प्रवासियों तथा धार्मिक संस्थाओं जैसे इस्कॉन या वृंदावन के बांके बिहारी मंदिर में अलग-अलग प्रकार से होली के श्रृंगार व उत्सव मनाने की परंपरा है जिसमें अनेक समानताएं और भिन्नताएं है।

साहित्यिक महत्व
प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली के अनेक रूपों को विस्तृत वर्णन किया गया है श्रीमद्भागवत महापुराण में रसों के समूह रास का वर्णन है अन्य रचनाओं में रंग नामक उत्सव का वर्णन है इसमें हर्ष की प्रियदर्शिका व रत्नावली तथा कालिदास की कुमारसंभवम् तथा मालविकाग्निमित्रम् शामिल है कालिदास रचित ऋतुसंहार मैं पूरा एक सर्ग ही 'वसंतोत्सव' को अर्पित है। भारवि, माघ और अन्य कई संस्कृत कवियों ने वसंत की खूब चर्चा की है। चंद्र परसाई द्वारा रचित हिंदी के पहले महाकाव्य पृथ्वीराज रसो में होली का वर्णन है। रीतिकाल के हिंदी साहित्य में होली और फाल्गुन मां का विशेष महत्व रहा है।आदिकालीन कवि विद्यापति से लेकर भक्ति कार्य सूरदास श्रेणी रसखान पधारकर जायसी मीराबाई कबीर और रितिकालीन बिहारी के सब गजानंद आदि अनेक कवियों को यह विषय रहा है महाकवि सूरदास ने वसंत एवं होली पर 78 पद लिखे हैं अदाकार ने भी होली विषयक प्रश्न रचना की है इस विषय में मध्यम से कवियों ने जहां एक और वेदांत लोकेट नायक नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली का वर्णन किया है वह राधा कृष्ण के बीच खेले गए प्रेम और छेड़छाड़ से भरी होली के माध्यम से सगुण साकार भक्ति में प्रेम और निर्गुण निराकार भक्ति में प्रेम का निष्पादन कर डाला है।

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